Monday, February 19, 2007

वोह ख़त

रेशमी हाथों से वोह ख़त देते हुये
उसने कहा कि मैं जा रही हूँ ......
सुरमई पलकों पर आश्रू रखते हुये
उसने कहा कि मैं जा रही हूँ ........
ज़ुल्फ़ें तो अब भी उड़ रही थी उसकी पर
उसने कहा कि मैं जा रही हूँ .......
उसके कदम मैं रोक ना सका
क्यूंकि उसने ' कहा कि मैं जा रही हूँ .......
इंतज़ार किया मैंने आखिरी झलक तक उसका
पर उसने कहा मैं जा रही हूँ ......
आज भी उसी एक पल मैं जीं रहा हूँ
जब उसने कहा मैं जा रही हूँ .....
उसकी ज़ुबा कि तरह मैंने ख़त नही खोला अब तक
क्यूंकि उसकी नज़रों ने कहा की मैं जा रही हूँ ..............

खाली सी जिन्दगी

मैं जाने कहा कहा भटकी हूँ
एक रोशिनी की तलाश मे
अब तो सिर्फ कुछ बूंदी ही
रह गए नैनो के खली ग्लास मे
इस तपती धूप मे जल्द ही
यह भी सूख जाये ना
डरती हूँ इस बात से की
कदम कही रूक जाये ना
जानती हूँ की मेरी रोशिनी
की तलाश अभी अधूरी है
पर क्या करूं यह भी
तो मेरी एक मज बूरी है
आज तक जिन्दगी से मैंने
कभी हार नही मानी
इसलिये आज यह मैंने
दिल मे है ठानी
की इस जिन्दगी को अपनी सांसे
छेन ने नही दूँगी
आज इस जिन्दगी का रुख ही
मैं मोड दूँगी
आज यह जिन्दगी खतम करके
सास ओं से पीछा चुरा रही हूँ
अर्ध्वेरम से यह शुरू हुई थी
आज इसमे पुर्न्वेरम लगा रही hoon
.

Thursday, February 15, 2007

पुकार

घर का हर कमरा अब खाली सा लगता है
दिल का हर जस्बा एक आग सा सुलगता है
रोने को जीं करता है लेकिन रो नही सकते
की मेरा दर्द घर के दूसरो से कुछ कम सा लगता है.......

तुम्हारे
लिए इंतज़ार थकता नही है मेरा
तनहाइयों का यहाँ कुछ होने लगा है ऐसा डेरा
की तुम्हारी याद है जो रोके नही रूकती
जाने कब होगा मेरी रातों का सवेरा ........

जब से तुम गए हो परदेस बचा नही यहाँ कुछ
खाली सा आंगन है यहाँ , खाली सी दीवारें कुछ
चुप्पी सी छायी है इस घर मे कुछ ऐसी
की दिल मे दर्द है हर किसी के पर कोई कहता नही कुछ ...........

कुछ और नही चाहिऐ हमे तुम बस जाओ
पथ झड है यहाँ बस मेघा की तरह छा जाओ
की हमारी आखें तरस गई है तुम्हे देखने को
देस पराया छोड़ तुम घर अपने जाओ .........

ग़ज़ल

आज फिर एक ग़ज़ल गा रही हूँ मैं
दर्द दिल के नग्मे सुना रही हूँ मैं
कोशिशें है आज भी जारी की ना भीगे पल्खें
की आज भी उन्ही लम्हों मैं जिन्दगी बिता रही हूँ मैं .......................

एक रोज़ हाथ थम के कहा था तुमने
की जीं ना पऊँगा मैं अब तुम्हारे बिन
सासें यह सारी लिख दी है मैने नाम तुम्हारे
की रहूँगा तेरे संग मैं अब रात दिन

आज फिर एक ग़ज़ल गा रही हूँ मैं
दर्द दिल के नग्मे सुना रही हूँ मैं ...........

"जिन्दगी " के दो दिन साथ गुज़ारे हमने
हर एक कदमो को भी हमने गीना
कब इन बाहों को छोड़ दिया था तुमने
की जीं रही हूँ आज मैं सासों के बिना

आज फिर एक ग़ज़ल गा रही हूँ मैं
दर्द दिल के नग्मे सुना रही हूँ मैं .................


अकेले इन रहो मैं छोड़ के जो गए हो तुम
की तन्हायियाँ घीरे है हमे चारो ओर
दिन कट रहे है हमारे कुछ ऐसे
जाने कब आती है शम्म जाने कब होती है भोर

आज फिर एक ग़ज़ल गा रही हूँ मैं
दर्द दिल के नग्मे सुना रही हूँ मैं .....................

Wednesday, February 14, 2007

हार की जीत

सपनो का सागर थम गया है जिस लम्हे मे आकर
थक गयी हूँ मैं उस शाम मैं जीं कर
कहते है जाम होता है वोह इलाज़ जिसमे कोई दर्द नही
सोचा आज मैं भी देखूं ज़रा इस से पी कर ..........

वोह पल जो खो गएँ है मेरे जाके उन्हे ढूड लाऊँ
आम इंसानों की तरह मैं भी एक सपनो का महल बाना ऊँ
इस शाम के साथ उन सब लम्हों को दूं जला
और फिर इस शाम की वो नयी सुबह बुलाओं .............

होस्लों को समेट चढ़ कर दिखाना है फिर से वोह पर्वत
किसी साथ की ,किसी सहारे की आज मुझको नही जरुरत
ख़त्म कर उस शाम को ,बढ़ना है मुझे आगे
पर हालात से हार मान जाऊं ,मेरी यह नही फितरत , मेरी नही यह फितरत .......